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शनिवार, दिसंबर 04, 2010

जब कभी मुझे ऐसा लगता है की दिशाएं अनुकूल है मेरे लिए तब मैं अच्छे  काम करता हूँ और जब कुछ ऐसा महसूस होता है की मेरे अन्दर काफी अन्दर तक विवेकानंद, टैगौर, महात्मा गाँधी जैसे महापुरुष के विचार जागने लगे  या फिर साहित्यकारों जैसे प्रेमचंद, प्रसाद, निराला, अगेये  ,पन्त आदि के सोच मुझे सोचने पर मजबूर करने लगते हैं , तब मैं कुछ नहीं करता बस एक दार्शनिक का लिबाज़ धारण कर लेता हूँ...

इस डर को दफ़न करना बेहतर होगा...

कोई इंसान किस हद तक डर सकता है
अपने द्वारा लिए गए निर्णय से |
बात है अकेले की
कोई कितना भी दिमाग लगा ले
मगर वो सही होगा
इस बात की कोई फरमान नहीं |
हाँ! मै एक बात जरुर कहूँगा की
गलत निर्णय हमेशा इंसान को
ऐसे तथ्यों के बारे में भी सोचने पर मजबूर कर देगा
जिसे वो कभी दिवा स्वप्न में भी नहीं देखा होगा |

पर उस समय वो अच्छा नहीं,
कुछ उल्टा-पुल्टा ही सोचेगा
अगर वो दार्शनिक भी हुआ तो
किसी से सलह लेकर
संत अनुयायी तो बिलकुल नहीं बन पायेगा...
कभी-कभी तो ऐसा लगता है कि
"दाता राम" कहने वाले ही सुख भोगते हैं |
मेरा इशारा डर के कारण आने वाले उल-जलूल ख्यालों से है |

मगर फिर हालत ऐसी हो जाएगी की
पानी का स्वाद भी फीका लगने लगेगा
और अगर डर के कारण...
जल जो जीवन है वो भी मन को तृप्त न कर पाए
तब तो, इस डर को दफ़न करना हीं होगा...





संकल्प

क्या, बारिश ने तुम्हे भिगोया है ?
नहीं ! तो अपने कपडे क्यों उतार रहे हो,
अरे भाई, वर्षा का जल है...
कोई विष तो नहीं
तो, इसे पी क्यों नहीं रहें हो ?

तुम डरपोक नहीं हो, मुझे पता है
पर तुम साहसी भी तो नहीं,
कायरता के लेप क्यों लगाये हो ?
किसने डराया है तुम्हे?
अगर किसी ने नहीं , तो फिर काँप क्यों रहें हो ?

आग को तो तुम छू नहीं सकते,
तो फिर तुम्हारे हाथ क्यों सूजे हुए है ?
तुमने दलदल की और कदम नहीं बढ़ाये तो फिर
ये कीचड़ कहाँ से आए...

जवाब दो अब खुद को...कि तुम्हारा संकल्प कैसे टूट गया ?

चल रहा समय है

चल  रहा  समय है
चल रहा है मानव
एक अनजान पथ पर बढ़ रहा हूँ मै
चारो तरफ उजाले है
फिर भी, डर रहा हू मै

मुझे तो आगे बढ़ना है
गहन अंधेरों से गुजरना है
दृढ संकल्प है मेरे
फिर भी मन क्यों डरे ,

सोचता हूँ ये हर बार
डरता हूँ बार-बार 
कोई समझाए इसे
कोई बताये इसे
रास्ते है अनेक
बस, बढ़ते चल तू सचेत...

 निराशाओं के कड़े धूप है जरूर
मगर इससे तू क्यों डरे
दृढ संकल्प है तेरे
फिर क्यों तू थामे...
चल  रहा  समय है
चल रहा है मानव...

मेरा प्रेम

मेरा प्रेम फूल नहीं,
सुगंध है...
हर रोज जिसे मै देखता नहीं
महसूस करता हूँ ,
वो मेरे साथ नहीं,  मेरे पास नहीं
क्योंकि, मेरा प्रेम फूल नहीं सुगंध है
  जब भी उपवन से गुजरता हूँ
उसे पाता ही नहीं
फूल तो बहुत है 
पर भाता ही नहीं
क्योंकि,  दीवार है उन पेड़ों के इर्द-गिर्द 
जिनपर मेरे हाथ 
पहुँचते नहीं ,क्योंकि ...
मेरा प्रेम फूल नहीं सुगंध है...



अर्थपूर्ण आवाज़

बिना मतलब के शोर करने वाले लोग मुझसे दूर रहें, 
क्योंकि मै इस ''भीड़'' में हूँ जरुर
मगर एक बात
हाँ, एक बात
मै दिल और दिमाग
जी नहीं-
केवल दिमाग के आवाज़ से साफ़ कर देना चाहता हूँ
कि,  मै इस ''भीड़'' के साथ नहीं
मेरी आवाज़ शायद आपको सुनाई  न दे,
और न ही समझ में आए ?


लेकिन ,अपने आस पास के बेमत्लाबी शोर से उभरकर,
 उससे निकलकर मुझे सुने,
मै समझ में आऊंगा,
और तब आपकी भीड़ भी अर्थपूर्ण बनेगी...

दर्शन की बातें

एक लम्बे समय के बाद जब 
कोई मुझसे पूछता है 
क्या तुम वही हो, जिसने कल के अख़बार को
अपना नाम दिया था?

मै कुछ देर के लिए खामोश हो जाता हूँ
और सोचने लगता हूँ कि
शायद मैंने ठीक नहीं किया
अगर मुझे वैसा करना ही था तो
मुझे कुछ और करना चाहिए था !
पर मै क्या करता
औरो कि तरह मै भी दर्शन को समझने लगा था 
और मैंने वही किया , जो  एक संपादक को करना चाहिए,
तब मै समझ जाता हूँ कि
बोलने वाले तो तब तक  बोलेंगे 
जब तक वो भी ,
इस दर्शन के  भक्त न बन जाये...