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रविवार, अगस्त 07, 2011

खड़ी बोली का विकास और नागरी लिपि १९वी शताब्दी के दौरान -

नव्य भारतीय आर्य भाषाओं के उदय (सन १ हज़ार इस्वी के आस-पास) के साथ ही हिंदी का आरम्भ माना जा सकता है| १४ वी शताब्दी तक अपभ्रंश और अवहट्ट भाषाओँ की निरंतर प्रधानता रही है फिर भी तत्कालीन साहित्यिक भाषा में लोकभाषाओं के प्रयोग अवश्य मिल जाते हैं | शिलालेखों और ताम्रपत्रों में, सिद्धों और नाथों की बानियों में,जैन कवियों की रचनाओ में, राजस्थान के वात और ख्यातों में, चारणों के चरित काव्यों में, स्वयम्भुदेव ,अब्दुर्रहमान, और विद्यापति आदि कवियों के काव्य में खड़ी बोली के नमूने प्राप्त होते है | इस खड़ी बोली में कई तरह के सम्मिश्रण है | ऐसी ही समिश्रित खड़ी बोली का प्रयोग नामदेव, त्रिलोचन, सधना,कबीर आदि के सधुक्कड़ी भाषा में हुआ है | शुद्ध खड़ी (हिन्दवी) बोली के पुराने नमूने शरफुद्दीन, अमीरखुसरो और बंदा निवाज़ गैलुदराज़ की रचनाओ में मिलते हैं | दक्षिण के कवियों और गद्यकारों ने खड़ी बोली में लिखा | महाराष्ट्र के कई संतों ने खड़ी बोली हिंदी को अपने प्रचार का माध्यम चुना था | समर्थ गुरु रामदास और उनके शिष्य देवदास तथा शिष्य दयाबाई की अनेक रचनाएँ खड़ी बोली हिंदी में उपलब्ध है | उत्तरी भारत में गंग,भट्ट, जटमल,प्राणनाथ, आदि लेखकों, ने इसको अपनी कृतियों का माध्यम बनाया | किन्तु कोई परंपरा नहीं बनी | खड़ी बोली प्रदेश में कोई सांस्कृतिक या धार्मिक केंद्र न होने के कारण और राजधानी के कुछ काल के लिए आगरा बदल जाने के कारण खड़ी बोली साहित्य की धरा क्षीण हो गई और फिर लुप्त ही हो गई , अट्ठारवीं शती के अंत तक ब्रजभाषा का राज्य रहा |

खड़ी बोली का पुनरुत्थान-
खड़ी बोली साहित्यिक भाषा की स्वतंत्र परंपरा उन्नीसवीं शताब्दी में ही विकसित हुई |

इसके पुनरुत्थान के कई कारण थे -
१) ब्रजभाषा का युग समाप्त हो रहा था | काव्य में इसका प्रयोग चलता तो रहा परन्तु उसमें कोई जान न रह गई थी | प्रायःकवि ब्रजमंडल के बाहर के थे | चलती भाषा से इनका कोई संपर्क न था | इनकी भाषा में क्षेत्रीय शब्द,क्रियारूप और वाक्ययोजना अन्य बोलियों से लिए गए थे | ब्रज भाषा ह्रासोन्मुख थी |
२) ब्रज भाषा का अभिव्यक्ति क्षेत्र अत्यंत सीमित और संकुचित था -श्रृंगार ही श्रृंगार के कोमल मधुर भाव |
३) ब्रजभाषा में गद्य साहित्य की बहुत कमी रही है | इसी समय खड़ी बोली की उर्दू शैली में और दक्खिनी हिंदी में काफी गद्य रचनाएँ प्रकाश में आने लगी | और खड़ी बोली को अवसर मिल गया |
४) प्रिंटिंग प्रेस स्थापना ने गद्य साहित्य को पनपने में उत्साहित किया | खड़ी बोली हिंदी बड़े वेग और व्यापक ढंग से बढ़ चली |
५) यह काल अंग्रेजों का काल था और उन्होंने खड़ी बोली को हीं प्रोत्साहित किया | नवागंतुक प्रशासकों को हिंदी की शिक्षा देने के लिए फोर्ट विलियम कॉलेज की स्थापना हुई जिसके प्रिंसिपल जॉन गिलक्रिस्ट थे | उनका मानना था की खड़ी बोली भारत में समझे जानेवाली भाषा है |
६) खड़ी बोली के उत्थान में मिशनरियों का योगदान भी रहा | इससे बाइबिल का प्रचार करने के लिए उसका अनुदित (हिंदी में) रूप उपलब्ध करवाया गया |
७) इससे प्रचारकों की प्रतिक्रिया में भारतीय जनता की चेतना को जगाने और उनमे उत्साह भरने के लिए आर्य समाज (प्रवर्तक महर्षि दयानंद सरस्वती), ब्रह्मा समाज (संस्थापक राजा राममोहन राय ), और हिन्दू धर्म सभा (प्रवर्तक श्रद्धाराम फिल्लौरी ) की स्थापना हुई, जिन्होंने अपना-अपना प्रचारात्मक साहित्य खड़ी बोली में प्रसारित किया |
८) स्कूलों के लिए जो तरह तरह के पुस्तकें लिखी गई वे खड़ी बोली में लिखी गई |

साहित्यिक खड़ी बोली का विकास-

साहित्यिक खड़ी बोली के विकास की दिशाएँ उन्नीसवी शती के दो खण्डों में देखी जा सकती है -१) पूर्व हरिश्चंद्र काल और २) हरिश्चंद्र काल में |
पूर्व हरिश्चंद्र युग - १७९९ में फोर्ट विलियम कालेज की स्थापना कलकत्ता में हुई | इसके आचर्य जॉन गिलक्रिस्ट ने भारतीय भाषाओं का अध्ययन किया | ईस्ट इंडिया कंपनी के प्रशासकों को हिंदी सिखाने के लिए उन्होंने एक व्याकरण और एक शब्दकोश का निर्माण किया | वे इस भाषा को हिन्दुस्तानी कहना ज्यादा उचित समझते थे | उनकी हिंदी लिखी तो जाती थी देवनागरी अक्षरों में परन्तु उसमे उर्दू के प्रयोग बहुलता से किये जाते थे |
गिलक्रिस्ट की अध्यक्षता में अनेक अनुवाद और मौलिक रचनाएँ प्रकाश में आई | इस कार्य में उनके चार सहायक थे - इंशा उल्लाह खाँ, लल्लू लाल, सदल मिश्र और सदासुख लाल | इनके योगदान का मूल्यांकन अत्यंत महत्वपूर्ण है | उनका संक्षिप्त विवरण निम्न रूप में है -
इंशा उल्लाह खाँ- इनकी रचना 'रानी केतकी की कहानी' ठेठ बोलचाल की भाषा में लिखी गई | उन्होंने ध्यान रखा की हिंदी को छुट किसी बाहर की बोली का पुट न मिले | वास्तव में इंशा ने 'हिन्दुस्तानी' रूप की स्थापना करनी चाही |
लल्लू लाल - इनकी १४ रचनाएँ बताई जाती है | उनमे कुछ अनुवाद है | 'प्रेम सागर' उनकी प्रसिद्द कृति है | इनकी रचनाओ में गद्य के पदबंधों में लयात्मकता और तुकबंदी, अलंकारों, लोकोक्तियों और मुहावरों से भाषा का श्रृंगार, नाना बोलियों का सम्मिश्रण और दक्खिनी हिंदी का प्रयोग | उन्होंने प्रायः विदेशी शब्दों का वहिष्कार किया | कुल मिलकर लल्लू लाल की भाषा खड़ी बोली मिश्रित थी |


सदल मिश्र- उनकी तीन कृतियाँ मशहूर हुई -नासिकेतोपाख्यान, अध्यात्म रामायण और रामचरित | इसके आधार पर यह कहा जा सकता है की उनकी शैली अपने ढंग की थी | वे बिहार के रहने वाले थे इसलिए उनकी भाषा में पूर्वी प्रयोग ज्यादा थी | कुछ पदों में ऐसा लगता है की मानो लेखक खड़ी बोली के प्रयोगों को सिखा रहे हो |
सदासुख लाल- वे दिल्ली के रहने वाले कायस्थ परिवार से और उर्दू के एक अच्छे लेखक और कवी थे, तो भी उन्होंने खड़ी बोली के उस रूप को अपनाया जिसमे पंडिताऊपन और पूर्व पश्चिम की बोलियों का सम्मिश्रण था फिर भी अन्य लेखकों की तुलना में उनकी भाषा मानक हिंदी के अधिक निकट आने लगी थी | उनकी प्रसिद्ध रचना 'सुखसागर' थी | निष्कर्षतः कह सकते है की फोर्ट विलियम कालेज के इन चार लेखकों ने खड़ी बोली के साहित्यिक क्षेत्र का विस्तार अवश्य किया किन्तु वे भाषा का कोई व्यावहारिक स्वरुप उपस्थित नहीं कर सके |
पत्र-पत्रिकाएँ - भार्तेंदुपूर्व काल में अनेक पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन होने लगा | हिंदी का सबसे पहला पत्र 'उदन्त-मार्तंड १८२६ में कलकत्ता से प्रकाशित हुआ , लेकिन थोड़े समय बाद लुप्त हो गया | १८२६ में कलकत्ता से 'बंग-दूत' निकला जिसे सरकार ने १८२९ में बंद कर दिया | राजा शिवप्रसाद सितारे हिंद का 'बनारस अख़बार' १८४४ से छपने लगा | इसकी भाषा हिन्दुस्तानी थी | इसकी उर्दू शैली के विरोध में 'सुधार' प्रकाश में आया | १८५४ में कलकत्ता में 'समाचार सुधा वर्षण' नाम का दैनिक पत्र प्रकाशित हुआ | पंजाब से नवीनचंद्र राय ने 'ज्ञान प्रकाशिनी' पत्रिका निकाली |
इन पत्र-पत्रिकाओं ने खड़ी बोली के प्रचार-प्रसार में महत्वपूर्ण योगदान किया | इनमे भाषा का ठेठ,प्रचलित और मिश्रित रूप हीं चलता रहा |
१९ वी शताब्दी के उत्तरार्ध का आरम्भ- १९ वी शताब्दी के ५० वर्ष बीतने के बाद राजा शिवप्रसाद सितारे हिंद और राजा लक्ष्मण सिंह ने स्वतंत्र रूप से दो नै शैलियों का विकास किया | राजा शिवप्रसाद सिंह की भाषा में पहले तो हिंदीपन ही अधिक था | परन्तु जब से वे शिक्क्षा विभाग के अधिकारी हुए , चाहे जिस कारण से हो,धीरे-धीरे उनकी भाषा में ऊर्दुपन बढ़ता गया | उनके द्वारा लिखी कई पुस्तकों से खड़ी बोली का प्रवेश हुआ और बच्चों को शुद्ध भाषा सिखाने की चिंता में हिंदी का स्वरुप निखरा |
ईसाई मिशनरी अपना धर्मप्रचार जनता की भाषाओं में कर रहे थे | उन्होंने देख लिया की इसके लिए उत्तर भारत में न तो ब्रजभाषा से काम चलेगा न उर्दू से | उन्होंने सरल खड़ी बोली को अपना माध्यम बनाया | उन्होंने जनता में नयी संस्कार भरने के लिए शिक्षा और पुस्तक प्रकाशन की योजनाएँ बनाई |
पाठ्य-पुस्तकों के अलावा इन्होने धर्म सम्बन्धी तथा समाज सुधार सम्बन्धी अनेक छोटी-बड़ी पुस्तकें छपवाकर जनता में वितरित की | सन १८२६ इसवी में 'धर्म पुस्तक ' नाम से ओल्ड टेस्टामेंट का खड़ी बोली में अनुवाद प्रकाशित हुआ |
हरिश्चंद्र युग- भारतेंदु हरिश्चंद्र १८७३ में 'हरिश्चन्द्र मैगजीन' के प्रकाशन के साथ खड़ी बोली का व्यावहारिक रूप लेकर आये | उन्होंने कई नाटक, कहानियाँ, निबंध आदि रचनाएँ की | नाटकों में सत्य हरिश्चंद्र, चन्द्रावली, नीलदेवी, भारत-दुर्दशा, प्रेम-योगिनी,विषस्य विषमौषधम, वैदिकी हिंसा न हिंसा भवति आदि अनेक मौलिक और अनुदित है | इनमे पद्य की भाषा तो ब्रजभाषा है और गद्य में ब्रजभाषा मिश्रित खड़ी बोली है जो धीरे-धीरे व्यावहारिक खड़ी बोली बनती गई | खड़ी बोली के विकास में उनका वास्तविक योगदान हरिश्चंद्र मैगजीन, हरिश्चंद्र चन्द्रिका और बालबोधिनी पत्रिकाओं के निबंधों में मिलता है | इन सब में गद्य की भाषा खड़ी बोली रही है |

2 टिप्‍पणियां:

Unknown ने कहा…

Sir ये topic पूरा कब होगा

बसन्त कुमार ने कहा…

यह पूरा ही है ।