बोलियों में अंतर्संबंध-
हिंदी की बोलियाँ होने के कारण इनमे हिंदी के से सामान्य लक्षण सर्वाधिक है | सभी संस्कृत की संतान है और सब में तद्भव शब्दों की प्रधानता है | ये तद्भव शब्द उन्हें संस्कृत से मिले हैं| विदेशी शब्द भी लगभग सबने लगभग एक हीं ढंग के अपनाएं हैं | शब्दावली में जो अंतर है वह अधिकांशतः देशज शब्दों में है| बिहार में जनजातियाँ अधिक है, इसलिए बिहारी बोलियों में देशज शब्द कुछ अधिक आ गए हैं | छत्तीसगढ़ी को प्रभावित करने वाले आदिवासी अलग जनजाति के हैं, भोजपुरी पर भिन्न जनजातियों के शब्द आये हैं| किन्ही बोलियों में देशज शब्द बहुत कम ही है | जहाँ देशज प्रभाव कुछ अधिक है वहां कतिपय व्याकरणिक प्रयोगों पर थोडा प्रभाव पड़ा है | पहाड़ी हिंदी पर पड़ने वाले प्रभाव मूलतः भिन्न है | लिंग की समस्या सब बोलियों में है, यहाँ तक कि यहाँ तक कि धुर पूरब में भी बड़ा थार, बड़ी थरिया, ललका घोडा, ललकी घोड़ी, मेरी विनती आदि रूप हैं | यद्यपि पास कि बंगला भाषा में यह समस्या नहीं है | सैंकड़ों हज़ारों संज्ञा शब्द और क्रियापद समान हैं| सर्वनामों में तो अस्चार्यजनक समानता है - मई, हम, तू, तुम, उ, वु, वा, वह, वोह में उच्चारणगत अंतर है, ऐसे, ही, ई, ए, एह, येह, यह में भी | को कौन, जो, सो, कोई, कोऊ, कुछ, किछु, कुछु में उच्चारण भेद भले हीं हो, परन्तु इनकी बोधगम्यता में कोई अंतर नहीं पड़ता |
भाषाविज्ञानियों ने हिंदी की १८ बोलियों के पाँच वर्ग निश्चित किये हैं | एक-एक वर्ग की बोलियाँ आपस में गुँथी हुई हैं |
पहाड़ी-कुमाउनी, गढ़वाली
राजस्थानी-मारवाड़ी, मेवाती, जयपुरी, मालवी
पश्चिमी हिंदी-दक्खिनी, हरयाणी, कौरवी, ब्रजभाषा, कन्नौजी, बुन्देली
पूर्वी हिंदी- छत्तीसगढ़ी, बघेली, अवधी
बिहारी हिंदी- मैथिलि, मगही, भोजपुरी
हिंदी की पहाड़ी उपभाषा की दो बोलियाँ हैं| गढ़वाली और कुमौनी जिनका परस्पर घनिष्ठ सम्बन्ध है | गढ़वाल और कुमाऊँ में राजपूतों की पत्तियां रही हैं| राजस्थानी से इनकी समानता है | दोनों बोलियों पर दरद, खास, किरात, और भोट आदि नाना जातियों की भाषाओं का प्रभाव मूलरूप से रहा है | उत्तरप्रदेश के अंतर्गत होने के कारण दोनों भूखंडों में खड़ी बोली हिंदी या कौरवी का प्रभाव भी बढ़ता रहा है | दोनों पहाड़ी बोलियाँ ओकारबहुला है |
राजस्थानी की चार बोलियाँ जो आपस में घने
रूप में जुड़ी हैं । इनकी सामान्य विशिष्टता ण ळ और ड़ ध्वनियों में सुविदित है । ड़ा या ड़ी
प्रत्यय बहुत व्यापक है, जैसे – संदेसड़ों , बापड़ो
।
पश्चिमी
हिन्दी की छह बोलियाँ है – तीन आकारबहुला (कौरवी, हरयाणी और दक्खिनी), और तीन ही ओकारबहुला (व्रजभाषा , कन्नौजी और
बुन्देली )। छहों का एक वर्ग में रखे जाने का तात्पर्य स्पष्ट है की इनमें गहरा
अन्तःसंबंध है । दो वर्गों में आ ओ का जो अंतर है वह प्रमुख है, जैसे – चल्या चल्यो, छोहरा छोहरो, मीठा मीठो । व्रजभाषा आदि की ओकाराबहुला उसे राजस्थानी बोलियों से भी
जोड़ती है। बुन्देली में भविष्यत कालिक ग-रूप नहीं है जो अन्य पश्चिमी बोलियों में
पाया जाता है । इसमें – ह रूप है जो बुन्देली को अवधि के साथ सम्बद्ध कर देता है ।
भौगौलिक दृष्टि से भी पश्चिमी हिन्दी बुन्देली और पूर्वी हिन्दी की अवधी की सीमाएं
जुड़ी है । सीमावर्ती क्षेत्रों में दूर तक दोनों बोलियों का मिश्रण मिलता है ।
कन्नौजी को बहुत से विद्वान अलग बोली
मानने को तैयार नहीं है । यह व्रजभाषा और अवधि का मिश्रित रूप है । कन्नौजी और
अवधी में ऐ औ का उच्चारण अइ अऊ होता है; जैसे –अइसा, कउन ।
दोनों में कुछ परसर्गों की अद्भुत समानता है – कर्म क, का, को, करण-अपादान से ( कन्नौजी में सें सौं भी ), अधिकरण माँ, महँ ।
तिर्यक बहुवचन –न व्रजभाषा आदि अवधी आदि में समान है । इस प्रकार बुन्देली
और कन्नौजी जो पश्चिमी हिन्दी की बोलियाँ हैं, अर्थात पूर्वी
हिन्दी से जुड़ गई हैं ।
पूर्वी
हिन्दी की तीन बोलियों में परस्पर थोड़ा अंतर है । कुछ भाषाविज्ञानी बघेली को अवधी
को ही उपबोली मानते हैं । जितनी समानता पूर्वी हिन्दी की बोलियों में है, उतनी
किसी वर्ग की बोलियों में नहीं है । वास्तव में अवधी, बघेली
और छत्तीसगढ़ी का एक महाजनपद रहा है जिसे कोसल कहते थे ।
अवधी
बिहारी बोलियों में भोजपूरी के माध्यम से जा मिलती है । संज्ञा के तीन-तीन रूप लघु, गुरु और
अतिरिक्त अवधी और सभी बिहारी बोलियों में समान है, जैसे- माली, मलिया, मलियवा, घोड़ा, घोड़वा, घोड़उवा । दोनों वर्गों में स्त्री प्रत्ययों
में – इनि प्रमुख है, जैसे- मालिनी, लरिकिनि
। परसर्गों में भी कोई विशेष अंतर नहीं है । कर्ता के साथ ‘ने’ परसर्ग नहीं लगता : जैसे- भो॰ हम देखलिन, ऊ कहिलिस, अवधी में हम देखिन, ऊ कहिस । पूर्वी हिन्दी और बिहारी
हिन्दी की बोलियों में विशेषण प्राय: आकारान्त नहीं होते, जैसे-
नीक, मीट, खोट । इसलिए विशेषण लिंगवचन कारक
में अपरिवर्तित रहते हैं। संज्ञाओं का एकवचन रूप बहुवचन में नहीं बदलता; जैसे – लरिका गवा, लरिका गयेन । बिहारी बोलियाँ तीन
है – भोजपूरी, मगही, मैथिली । मगही मध्यस्थ
है, यह अन्य दोनों को जोड़ती है । इन बोलियों के संज्ञा रूप, सर्वनाम और क्रियारूप लगभग समान है । रचनात्मक प्रत्यय भी एक से है । सबसे
बड़ी पहचान अ भी वृत्ताकार ध्वनि है जो थोड़ी बहुत बँगला से मिलती है ।
निष्कर्ष
यह है कि हिन्दी की सब बोलियाँ पास पड़ोस कि बोली से कई तत्वों में गूँथी होती है ।
पहाड़ी और मगही, अथवा मारवाड़ी और मैथिली में इतना भारी अंतर है कि इनके बोलने वाले
एक दूसरे को नहीं समझ पाते तब उन्हें सामान्य हिन्दी जोड़ती है ।
हिन्दी
प्रदेश एक ऐसा भूखंड है जहाँ बोलियों के बीच में कोई स्पष्ट सीमारेखा नहीं है । इस
कारण से सब बोलियाँ परस्पर जुड़ी हैं,
1. गढ़वाली 2. कुमाउनी 3. हरयाणी 4. राजस्थानी 5. व्रजभाषा 6. बुन्देली 7. कन्नौजी 8. अवधी 9. बघेली 10. छत्तीसगढ़ी 11. भोजपुरी 12. मगही 13. मैथिली ।
4 टिप्पणियां:
आगे भी तो बढि़ए महोदय,आधा अधूरा वक्तव्य, आलेख न तो आपके ही काम का और न किसी छात्र या पाठक के।
सर मै भी एक न्यु ब्लोगर हु लेकिन मेरे साथ कुछ परेशानियाॅ है और आप से एक छोटी सी मदद चाहता हू यदि आप मेरी मदद कर सकते है तो इसके लिए मै आपका आभारी रहूँगा
Email- mdkurbanansari49@gmail.com
क्या परेशानी है ?
विजेंद्र जी अब आलेख छात्र और पाठक दोनों के काम के है ।
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