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रविवार, जुलाई 10, 2011

शिकायत

धूल भी है जमीं पर 
ये पाँव भी है जमीं पर 
तो फिर आसमां की क्या जरुरत !
कहते है ग़ालिब के बाद के शायर कि
आसमां में छिपे चाँद की क्या जरुरत !
जिन हवाओं ने इन सुर्ख आँखों में 
दिए धूल के बारीक कण 
उन हवाओं की क्या जरुरत !
राहों में चलने वाले मुसाफिर
भटकने के बाद कहते हैं         
इन राहों की क्या जरुरत !
कड़ी धूप में तिलमिलाते बदन  
और जुबां से एक सच कि 
इस धूप की क्या जरूरत !
वो खुसी के पल और उस पल के बाद बहते आंसू   
तो इन आंसुओं की क्या जरूरत !
हर जंग में लड़ते जवान 
हर दुश्मन से लड़ते लड़ते शहीद होते जवान 
तो उस जंग की क्या जरूरत !
उस तूफानी रात में उजड़ते लाखों झोपड़े
और बेसहारा होते लाखों गरीब लोग
तो उस तूफ़ान की क्या जरूरत !
बाढ़ से बहते कई गाँव और बर्बाद होते किसान 
बह जाते सारे छोटे-छोटे सपने
बाढ़ के साथ 
बह जाते एक समय की सुखी रोटी और प्याज 
उस बाढ़ के साथ 
फिर उस बाढ़ की क्या जरूरत !
गरीबी और गरीबों के हक़ को लेकर किये गए 
वादें जो पूरे नहीं होते 
उन वादों की क्या जरूरत !
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