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शुक्रवार, दिसंबर 30, 2011

रोजगार और बेरोजगार...

रोजगार और बेरोजगार...
दो शब्दों की जिंदगी,
एक में फटे जूतें में भी रास्ते की धुल प्यारी लगती थी,
जब मीलों पैदल चलना पड़ता...
लेकिन दूसरे में रास्ते पर चलना,
जैसे काफी समय का अंतर...
पहले ने, सिक्कों और कागज़ के नोटों पर लिखे
बहुत सारे चीजों पर ध्यान बटाया,
लेकिन दूसरे ने केवल
बड़े और छोटे का भेद...
ऐसा क्यों...?
एक सवाल खुद से...!
उत्तर बहुत सरल है,
क्योंकि सारा फसाद इस 'बे' ने ही खड़ा किया है...
चरित्र को कठघरे में ला खड़ा कर दिया |
पहले सिर्फ कलम की ताकत थी,
अब नोट को देख कलम भी कुछ नहीं बोलता...
बेरोजगारी की पुरानी बैसाखी टूट गई,
रोजगार की चिकनी जमीन पर,
हर ओर नोटों और उस पर टिके निरीह लोगों की पुकार गूंजती रही,
लेकिन
दोनों एक दूसरे की बातों को
कभी मान नहीं सकता...