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रविवार, अगस्त 07, 2011

अपभ्रंश, अवहट्ट एवं आरंभिक हिंदी का व्याकरणिक और प्रायोगिक रूप -

खड़ी बोली हिंदी के भाषिक और साहित्यिक विकास में जिन भाषाओँ और बोलियों का विशेष योगदान रहा है उनमे अपभ्रंश और अवहट्ट भाषाएँ भी है| हिंदी को अपभ्रंश और अवहट्ट से जो कुछ भी मिला उसका पूरा लेखा जोखा इन तीनों की भाषिक और साहित्यिक संपत्ति का तुलनात्मक विवेचन करने से प्राप्त होता है |

अपभ्रंश और अवहट्ट का व्याकरणिक रूप -

अपभ्रंश कुछ -कुछ और अवहट्ट बहुत कुछ वियोगात्मक भाषा बन रही थी, अर्थात विकारी शब्दों (संगे, सर्वनाम, विशेषण,और क्रिया) का रूपांतर संस्कृत की विभक्तियों से मुक्त होकर पर्सर्गों और स्वतंत्र शब्दों या शब्द्खंडों की सहायता से होने लगा था | इससे भाषा के सरलीकरण की प्रक्रिया तेज हो गई | अपभ्रंश और अवहट्ट का सबसे बड़ा योगदान पर्सर्गों के विकास में है | सर्वनामों में हम और तुम काफी पुराने हैं | शेष सर्वनामों के रूप भी अपभ्रंश और अवहट्ट में संपन्न हो गए थे | अपभ्रंश मइं से अवहट्ट में मैं हो गया था | तुहुँ से तू प्राप्त हो गया था | बहुत से अपभ्रंश और अवहट्ट के सर्वनाम पूर्वी और पश्चिमी बोलियों को मिले | सबसे महत्वपूर्ण योगदान क्रिया की रचना में क्रिदंतीय रूपों का विकास था जो अपभ्रंश और अवहट्ट में हुआ | भविष्यत् काल के रूप इतर बोलियों को मिले ; अवहट्ट में, भले हीं छिटपुट, ग-रूप आने लगा था | इसी से कड़ी बोली को गा गे गी प्राप्त हुए | अपभ्रंश और अवहट्ट में संयुक्त क्रियाओं का प्रयोग भी ध्यातव्य है | इसी के आगे हिंदी में सकना,चुभना,आना,लाना,जाना,लेना,देना,उठाना,बैठना का अंतर क्रियाओं से योग करने पर संयुक्त क्रियाओं का विकास हुआ और उनमें नई अर्थवत्ता विकसित हुई | अपभ्रंश काल से तत्सम शब्दों का पुनरुज्जीवन, विदेशी शब्दावली का ग्रहण, देशी शब्दों का गठन द्रुत गति से बढ़ चला | प्राकृत तो संस्कृत की अनुगामिनी थी - तद्भव प्रधान | अपभ्रंश और अवहट्ट की उदारता ने हिंदी को अपना शब्द्भंदर भरने में भारी सहायता दी |

साहित्यिक योगदान

सिद्धों और नाथों की गीत परंपरा को संतों ने आगे बढ़ाया | सिद्धों के से नैतिक और धार्मिक आचरण सम्बन्धी उपदेश भी संत्काव्य के प्रमुख लक्ष्मण हैं | इस प्रकार हिंदी साहित्य के इतिहास में चारण काव्य और भक्तिकाल का सूफी काव्य, संतकाव्य, रामभक्ति काव्य और कृष्णभक्ति काव्य को प्रेरित करने में अपभ्रंश और अवहट्ट काव्य परम्परा का महत्वपूर्ण सहयोग प्राप्त रहा है| यदि उस पूर्ववर्ती काव्य में पाए जाने वाले नये-नये उपमानों, नायिकाओं के नख-शिख वर्णनों, नायकों के सौन्दर्य के चित्रण, छंद और अलंकार योजना को गहराई से देखा जाये तो स्पष्ट हो जायेगा की रीति काल के साहित्य तक उसका प्रभाव जारी रहा | ऐसा लगता है सन १८०० तक थोड़े अदल-बदल के साथ वैसी ही भाषा, वैसे ही काव्यरूप और अभिव्यक्ति के वैसे ही उपकरण काम में लाये जाते रहे | क्रान्ति आई तो खड़ी बोली के उदय के साथ |

अपभ्रंश और अवहट्ट में दोहा-चौपाई जैसे वार्णिक छंदों का भरपूर प्रयोग हुआ है | हिंदी के प्रबंध काव्यों-सूफियों की रचनाओं में और रामभक्तों के चरित-काव्यों-में इन्ही दो को अधिक अपनाया गया है| अपभ्रंश और अवहट्ट में चऊपई १५ मात्राओं का छंद था | हिंदी के कवियों ने इसमें एक मात्रा बढाकर चौपाई बना लिया | छप्पय छंद का रिवाज़ भी उत्तरवर्ती अपभ्रंश में चल पड़ा था | दोहा को हिंदी के मुक्तक काव्य के लिए अधिक उपयुक्त माना गया | कबीर, तुलसी, रहीम, वृन्द और विशेषता बिहारी ने इसका अत्यंत सफल प्रयोग किया |

अलंकार योजना में अपभ्रंश और अवहट्ट के कवियों ने लोक में प्रचलित नए-नए उपमान और प्रतीक लाकर एक अलग परंपरा की स्थापना की जिसका हिंदी के कवियों ने विशेष लाभ उठाया | कबीर जैसे लोकप्रिय कवियों
में इस तरह के प्रयोग अधिकता से मिलते हैं |

अरबी का प्रभाव फ़ारसी के द्वारा हिंदी पर पड़ा मगर सीधे नहीं | अरबी फ़ारसी में अनेक ध्वनिया हिंदी से भिन्न है, परन्तु उनमे पाँच ध्वनियाँ ऐसी है जिनका प्रयोग हिंदी लेखन में पाया जाता है, अर्थात, क़,ख़,ग़,ज़,फ़ |इनमे क़ का उच्चारण पूरी तरह अपनाया नहीं जा सका| खड़ी बोली हिंदी को अंग्रेजी की एक स्वर-ध्वनि और दो व्यंजन-ध्वनिया अपनानी पड़ी क्योंकि बहुत से ऐसे शब्द हिंदी हिंदी ने उधार में लिए है जिनमे ये ध्वनिया आती है | अंग्रेजी से अनुवाद करके सैंकड़ो-हजारो शब्द ज्ञान-विज्ञान और साहित्य में अपना रखे हैं | अंग्रेजी से सम्पर्क होने के बाद से हिंदी गद्य साहित्य के विकास में अभूतपूर्व प्रगति हुई है | गद्य के सभी विधाओं में बांगला साहित्य अग्रणी रहा |


आरंभिक हिंदी- आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने अपना "हिंदी साहित्य का इतिहास " सिद्धो की वाणियों से शुरू किया है | सरहपा, कन्हापा आदि सिद्ध कवियों ने अपनी भाषा को जन से अधिक निकट रखा | इसमें हिंदी के रूप असंदिग्ध है| कुछ विद्वानों ने जैन कवि पुष्यदंत को हिंदी का आदि कवि माना है| पउम चरिउ के महाकवि स्वैम्भू ने अपनी भाषा को देशी भाषा कहा है | अवधी के प्रथम कवि मुल्ला दाऊद की भाषा को आरंभिक हिंदी नहीं कहा जा सकता, उनका रचनाकाल चौदहवीं शताब्दी का अंतिम चरण माना गया | उनसे पहले अन्य बोलियों की साफ़ सुथरी रचनाएँ उपलब्ध है |

नाथ जोगियों की वाणी में आरंभिक हिंदी का रूप अधिक निखरा हुआ है| इसी परंपरा को बाद में जयदेव, नामदेव, त्रिलोचन,बेनी, सधना, कबीर आदि ने आगे चलाया |

इससे भी स्पष्ट और परिष्कृत खड़ी बोली का दक्खिनी रूप है जिसमें शरफुद्दीन बू-अली ने लिखा |

9 . शुद्ध खड़ी बोली (हिन्दवी की) के नमूने अमीर खुसरो की शायरी में प्राप्त होते है | खुसरो की भाषा का देशीपन देखिये |

10.खड़ी बोली में रोड़ा कवि की रचना "रौल बेलि" की खड़ी बोली कुछ पुरानी |

11. राजस्थान और उसके आस-पास हिंदी के इस काल में चार प्रकार की भाषा का प्रयोग होता रहा है | एक तो अपभ्रंश-मिश्रित पश्चिमी हिंदी जिसके नमूने स्वयंभू के पऊम चरिऊ में मिल सकते हैं, दूसरी डिंगल, तीसरी शुद्ध मरु भाषा (राजस्थानी) और चौथी पिंगल भाषा | राजस्थान इस युग में साहित्य और संस्कृति का एक मात्र केंद्र रह गया था | सारे उत्तरी भारत में पठान आक्रमणकारियों की मारकाट, वाही-तबाही मची थी | हिंदी के आदिकाल का अधिकतम साहित्य राजस्थान से ही प्राप्त हुआ है |

12. डिंगल को चारण वर्ग की भाषा कह सकते हैं |यह लोकप्रचलित भाषा नहीं थी | पिंगल एक व्यापक क्षेत्र की भाषा थी जो सरस और कोमल तो थी ही, शास्त्र-सम्मत और व्यवस्थित भी थी | यह ब्रजमंडल की भाषा नहीं थी |

आदिकाल की भाषा के ये तेरह रूप है जो प्रारंभिक या पुरानी हिंदी के आधार है| पं० चक्रधर शर्मा गुलेरी का मत सही जान पड़ता है की 11 वी शताब्दी की परवर्ती अपभ्रंश (अर्थात अवहट्ट) से पुरानी हिंदी का उदय माना जा सकता है| किन्तु, संक्रांति काल की सामग्री इतनी कम है की उससे किसी भाषा के ध्वनिगत और व्याकरणिक लक्षणों की पूरी-पूरी जानकारी नहीं मिल सकती |

       कोई भाषा एकदम कहीं से फूटकर नहीं निकाल पड़ती । उसके बीज पूर्ववर्ती भाषा में विद्यमान रहते हैं ।
            अवधि हो या चाहे खड़ी बोली और चाहे दक्खिनी किसी का एकभाषी ग्रंथ 1250 ई॰ से पहले का उपलब्ध नहीं है और यही तीन भाषाएँ ऐसी है जिनकी परंपरा आगे चली है । यही हिन्दी है । डिंगल या पिंगल में रचित किसी काव्य की भाषा प्रामाणिक नहीं मानी गई ।

            हिन्दी मध्य देश की सारी बोलियों का एक सामूहिक नाम है ।
स्वर :
1. आरंभिक हिन्दी में निम्नलिखित स्वर मिलते हैं –
अ आ   इ ई    उ ऊ    ए ऐ    ऑ ओ औ

2. सब शब्द स्वरांत होते हैं, व्यंजनांत नहीं ; जैसे- अऊसर के अंत में अ, दीसा, सोहंता, जुगति, पुंजु या किछु । इसे उकार बहुला भाषा कहा गया है । उदाहरण – अघडु, पापु, पिंडु, चलु ।

3. संज्ञा-विशेषण के अंत में उ पुल्लिंग की और इ स्त्रीलिंग शब्द की पहचान है ; जैसे- धर्मु, कारणु, पुंज, जुगति राति ।
4. निम्नलिखित शब्दों में स्वरगुच्छ उल्लेखनीय है –

मूआ, सूआ (ऊ आ ), फड़ाइ, पाइया (आ इ ), केउ (ए उ) कोइ (ओ इ ) , दोउ (ओ उ ) ।

5. स्वरों के हृस्वीकरण के उदाहरण –

जमाई (जमाइअ, सं ॰ जामातृक ) , दिवारी (सं॰ दीपावली), अनंद (सं॰ आनंद ) ।  

6. स्वरों के दीर्घीकरण  के उदाहरण -  

मानुख (सं॰ मनुष्य ), चीत ( सं चित्त ), मीत (सं॰ मित्र ) ।

व्यंजन :
1.      व्यंजनों की व्यवस्था इस प्रकार है –

क ख ग घ ड                                           च छ ज झ  ञ
ट ठ ड ढ ण ड़ ढ़                                     त थ द ध न
प फ ब भ म                                            य र ल व स ह
 
2.       तत्सम शब्दों में ष सुरक्षित है । ड़ ढ़ दो नए व्यंजन है जो सं ॰ ट ठ प्राकृत ड ढ से अवहट्ट में ही विकसित हो गए थे, परंतु सिद्धों की भाषा में और पश्चिमी हिन्दी के पूर्वरूपों में बहुधा मिलते हैं ।

3.       अनुनासिक व्यंजन में ड ञ स्वतंत्र नहीं हैं, ( अवहट्ट में स्वतंत्र थे ), संयोग में आते हैं, परंतु प्राय: इनके स्थान पर अनुस्वार मिलता है, जैसे-  गंगा, लंक, पुंजु, कुंजु । ण का पूर्वी हिन्दी में न है ; जैसे –पुन्नी (पुण्य), गुन (गुण) ।पश्चिमी हिन्दी में ण इतना अधिक है कि प्राय: न का भी ण कर दिया जा रहा है ; जैसे – जाणाऊं, सुजाण, तिण । मुख से मुह लघु से लहुक और फिर हलुक, कथा से कहा, मेघ से मेह, दधि से दहि, गंभीर से गहिर । कुछ इस प्रक्रिया के कारण और कुछ व्याकरणिक रूपों के कारण आदि हिन्दी हकार-बहुला लगती है ।

संयुक्त व्यंजन :

1. शब्द के बीच में आनेवाले संयुक्त व्यंजन द्वित्व हो गए थे । प्रारम्भिक हिन्दी में बहुत अधिक उदाहरण है, जैसे – दुज्जन( दुर्जन से ), दुट्ठ (दुष्ट), अब्भंतर (अभ्यंतर), अक्खर (अक्षर) , उच्छाह (उत्साह) ।  
      2. प्रारम्भिक हिन्दी की अपनी प्रवृत्ति यही है कि व्यंजन एक ही रह गया, अत: उससे पहले अक्षर का स्वर दीर्घ हो गया ।  
      3. क्ष का पूर्वी बोलियों में छ और पश्चिमी बोलियों में ख हो गया ; यथा – लक्ष्मण से लछमन, लखन, अक्षर से अच्छर , आखर ।
      4. तत्सम शब्दों का व्यवहार बढ़ते रहने के कारण, उनके व्यंजन चाहे सरल थे चाहे संयुक्त सब सुरक्षित हैं ; 
         जैसे –विप्र, कन्या, मस्तक, मोक्ष, चन्द्र, श्याम, स्वामी, आश्रम ।
      5. जिन  संयोगों में पहला अंग अनुनासिक व्यंजन था, वह संयुक्त तो नहीं रहा, केवल अनुनासिक व्यंजन ले स्थान पर अनुस्वार कर दिया गया, यथा – सं॰ पण्डित्त से पंडित , कुण्डल से कुंडल।, खम्भ से खंभ, लड्क से लंक, कञ्ज से कंज, सन्त से संत ।

व्याकरण :

आरंभिक हिन्दी कि वियोगात्मक प्रक्रिया बढ़ी है ।

1.      संज्ञा के परसर्ग –

कर्ता x कर्म x , कहं, कह, कौ , को, कूँ
करण-अपादान – सऊं , सौं , सै, से, तै, ते, सेती, हुत
संप्रदान – लागि,  लग्गि, तण , तई
संबंध – क, का, कै, की, कर, केर, केरा, केरी, केरे   
अधिकरण – में, मैं, मह, माँह, माँझ; पर , पै ।

      2.     निर्विभक्तिक या लुप्तविभक्तिक कारकीय प्रयोग –

इनमें न तो परसर्ग है न विभक्ति चिन्ह ; जैसे – (कर्ता ) चेरी धाई , चेरी धाई (बहुवचन ) (कर्म ) बासन फोरे , मान बढ़ावत, (करण ) बिरह तपाइ तपाइ , (अपादान ) तुहि देश निसारऊं, (संबंध) राम कहा सरि, (अधिकरण ) कंठ बैठि जो कहईं  भवानी ।

3.      सविभक्तिक प्रयोग –

हि ऐसा विभक्ति-चिन्ह है जो सभी कारकों के अर्थ देता है । यथा –
(कर्म) सतरूपहिं विलोकि, (करण) वज्रहि मारि उड़ाइ, (संप्रदान ) बरहि कन्या दे, (अपादान) राज गरबहि बोले नाहीं, (संबंध ) पंखहि तन सब पांख , (अधिकरण ) चरनोदक ले सिरहि चढ़ावा ।

वचन :

पुल्लिंग बहुवचन के लिए – ए और – न , जैसे – बेटे , बटन ।
स्त्रीलिंग बहुवचन के लिए – अन , न्ह , आँ; जैसे – सखियन , बीथिन्ह , कलोलै, अँखियाँ ।

लिंग :

प्राय: स्त्रीलिंग शब्द इकारांत है ; जैसे – आँखि, आगि , औरति ।
सर्वनाम :

उत्तम पुरुष – मैं की अपेक्षा हौं व्यापक है , बाद में मई, फिर मैं मुज्यु , मोंहि, मोर, मेरा मेरा ।
हम ; हमार , अम्हार , हमारो, म्हारो, हमारा, हमें, हमहि, अम्हणऊं

माध्यम पुरुष – तूँ , तुहूँ , तै ; तुहि , तोहि, तोर , तेरा, तेरो

अन्य पुरुष – सो, से , सेइ, ताहि

संकेतवाचक – वह,,; वाहि , ओह , तासु, ताहि, उस, 
वे, ते, उन्ह , उन , तिन

प्रश्नवाचक – को, कौन, कवन, कवण ; का, काहे , जिह

संबंधसूचक – जे, जो, जेइ ; जो, जिहि , जा, जिस, जिह

आनिश्चियवाचक – कोउ, कोई, काहु, किसी, किनहि

विशेषण: 
  
बहुत, बहुतै, थोरो । संख्यावाचक विशेषण स्पष्ट हो रहें है – एक, एकु, एक्क, दोउ, दुहु, दुइ, पहिला, दूसर । उकारांत , आकारांत विशेषण का स्त्रीलिंग रूप ईकारांत और पुल्लिंग बहुवचन एकारांत  हो जाता है , जैसे- गाढ़ी, पातली, साँवरी; तीखे, ऊँचे ।

क्रिया की कालरचना :

वर्तमान काल-
                                         एकव॰                              बहु॰
उत्तम पुरुष                    देखउ , देखौं                     देखहि देखै
मध्यम पुरुष                     देखहि, देखइ                   देखहु, देखौ
अन्य पुरुष                       देखहि, देखइ                    देखहि, देखइ, देखै ।                                 
 
भूतकाल- देखिया, देखे, देखैला (पूर्वी)
 
भविष्यत् काल-
उत्तम पुरुष                       देखिसि, देखिहऊं देखिस्यऊं, देखिहैं                                      
मध्यम पुरुष                      देखिसि, देखिहै                 देखिस्यऊं, देखिहौ, देखिहु
अन्य पुरुष                        देखिसइ, देखिहि               देखिस्यइं, देखिहैं, देखिहहिं  ।         
 
आज्ञार्थ – देखउ, देखहु, देखइ, देखहि, देखो ।
 
कृदंत- दसित , पढ़ंत, करंत; बलन्ती , चमकतु ।
 
सहायक क्रिया –
 
वर्तमान
उत्तम पुरुष                       आछौं , छऊं , हऊं , हूं      छूं, छहि, अहहों , हैं   
मध्यम पुरुष                     अछइं , छइ; आहि, है       अछउ, छउ; होहु, हौ
अन्य पुरुष                       आछ, अछ; अहै, हइ,        हइ आछहि, छि: अहहीं, हैं 
 
भूत हो , हुतो , हतो, भा, भयो, भवा; हुआ, हुयउ, हते, हुते, थे, भए; हुयउ
 
भविष्यत्
उत्तम पुरुष                       हाइहऊँ, ह् वै  , हौं                       ह् वैहौं   
मध्यम पुरुष                      होइइ, ह्वै, है                                 ह् वैहौ
अन्य पुरुष                        होइहि, होब, होइगो                      ह् वैहों, होहिगे ।
 
संज्ञार्थक क्रिया – देखना, देखनो, देखनौ, देखिबो
पूर्वकालिक क्रिया- तपाइ (तपाकर) , लगाइ (लगाकर), देखि करि , देखिकै, आइ, खाइ, खाय, देखि के ।
प्रेरणार्थक क्रिया- उतारइ, जलावइ
कर्मवाच्य- कही जइ , कहीजै
संयुक्त क्रियाएँ- कहे जात हैं ; चलत न पाए, देखौ चाहत , सुनावन लागै , चितवन आहिं ।

अव्यय:

क्रिया विशेषण – अजहूँ, आजु, जब लगि , कब, कदे, पुनि , इहां, अइस, कहाँ, कित, अइस, जस, मति, बिनु ।

समुच्चयबोधक: अउ,, अरु, अवर, अउर, के, कि, जउ ।

तत्सम और तद्भव के कुछ उदाहरण- आअत (आयत) , इबराहिम, इलाम (इनाम), खोदलम्म (खुदाए आलम), दोजक (नरक), जंग, दरबार, फौज, लशकर, दीदार, सहनाई , सिकार ।

देशज शब्दों के उदाहरण – गुंडा, बेटा, गुदड़ी , चूड़ा, घाघरा, घनघन , घहराना, ठमकना ।
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खड़ी बोली का विकास और नागरी लिपि १९वी शताब्दी के दौरान -

नव्य भारतीय आर्य भाषाओं के उदय (सन १ हज़ार इस्वी के आस-पास) के साथ ही हिंदी का आरम्भ माना जा सकता है| १४ वी शताब्दी तक अपभ्रंश और अवहट्ट भाषाओँ की निरंतर प्रधानता रही है फिर भी तत्कालीन साहित्यिक भाषा में लोकभाषाओं के प्रयोग अवश्य मिल जाते हैं | शिलालेखों और ताम्रपत्रों में, सिद्धों और नाथों की बानियों में,जैन कवियों की रचनाओ में, राजस्थान के वात और ख्यातों में, चारणों के चरित काव्यों में, स्वयम्भुदेव ,अब्दुर्रहमान, और विद्यापति आदि कवियों के काव्य में खड़ी बोली के नमूने प्राप्त होते है | इस खड़ी बोली में कई तरह के सम्मिश्रण है | ऐसी ही समिश्रित खड़ी बोली का प्रयोग नामदेव, त्रिलोचन, सधना,कबीर आदि के सधुक्कड़ी भाषा में हुआ है | शुद्ध खड़ी (हिन्दवी) बोली के पुराने नमूने शरफुद्दीन, अमीरखुसरो और बंदा निवाज़ गैलुदराज़ की रचनाओ में मिलते हैं | दक्षिण के कवियों और गद्यकारों ने खड़ी बोली में लिखा | महाराष्ट्र के कई संतों ने खड़ी बोली हिंदी को अपने प्रचार का माध्यम चुना था | समर्थ गुरु रामदास और उनके शिष्य देवदास तथा शिष्य दयाबाई की अनेक रचनाएँ खड़ी बोली हिंदी में उपलब्ध है | उत्तरी भारत में गंग,भट्ट, जटमल,प्राणनाथ, आदि लेखकों, ने इसको अपनी कृतियों का माध्यम बनाया | किन्तु कोई परंपरा नहीं बनी | खड़ी बोली प्रदेश में कोई सांस्कृतिक या धार्मिक केंद्र न होने के कारण और राजधानी के कुछ काल के लिए आगरा बदल जाने के कारण खड़ी बोली साहित्य की धरा क्षीण हो गई और फिर लुप्त ही हो गई , अट्ठारवीं शती के अंत तक ब्रजभाषा का राज्य रहा |

खड़ी बोली का पुनरुत्थान-
खड़ी बोली साहित्यिक भाषा की स्वतंत्र परंपरा उन्नीसवीं शताब्दी में ही विकसित हुई |

इसके पुनरुत्थान के कई कारण थे -
१) ब्रजभाषा का युग समाप्त हो रहा था | काव्य में इसका प्रयोग चलता तो रहा परन्तु उसमें कोई जान न रह गई थी | प्रायःकवि ब्रजमंडल के बाहर के थे | चलती भाषा से इनका कोई संपर्क न था | इनकी भाषा में क्षेत्रीय शब्द,क्रियारूप और वाक्ययोजना अन्य बोलियों से लिए गए थे | ब्रज भाषा ह्रासोन्मुख थी |
२) ब्रज भाषा का अभिव्यक्ति क्षेत्र अत्यंत सीमित और संकुचित था -श्रृंगार ही श्रृंगार के कोमल मधुर भाव |
३) ब्रजभाषा में गद्य साहित्य की बहुत कमी रही है | इसी समय खड़ी बोली की उर्दू शैली में और दक्खिनी हिंदी में काफी गद्य रचनाएँ प्रकाश में आने लगी | और खड़ी बोली को अवसर मिल गया |
४) प्रिंटिंग प्रेस स्थापना ने गद्य साहित्य को पनपने में उत्साहित किया | खड़ी बोली हिंदी बड़े वेग और व्यापक ढंग से बढ़ चली |
५) यह काल अंग्रेजों का काल था और उन्होंने खड़ी बोली को हीं प्रोत्साहित किया | नवागंतुक प्रशासकों को हिंदी की शिक्षा देने के लिए फोर्ट विलियम कॉलेज की स्थापना हुई जिसके प्रिंसिपल जॉन गिलक्रिस्ट थे | उनका मानना था की खड़ी बोली भारत में समझे जानेवाली भाषा है |
६) खड़ी बोली के उत्थान में मिशनरियों का योगदान भी रहा | इससे बाइबिल का प्रचार करने के लिए उसका अनुदित (हिंदी में) रूप उपलब्ध करवाया गया |
७) इससे प्रचारकों की प्रतिक्रिया में भारतीय जनता की चेतना को जगाने और उनमे उत्साह भरने के लिए आर्य समाज (प्रवर्तक महर्षि दयानंद सरस्वती), ब्रह्मा समाज (संस्थापक राजा राममोहन राय ), और हिन्दू धर्म सभा (प्रवर्तक श्रद्धाराम फिल्लौरी ) की स्थापना हुई, जिन्होंने अपना-अपना प्रचारात्मक साहित्य खड़ी बोली में प्रसारित किया |
८) स्कूलों के लिए जो तरह तरह के पुस्तकें लिखी गई वे खड़ी बोली में लिखी गई |

साहित्यिक खड़ी बोली का विकास-

साहित्यिक खड़ी बोली के विकास की दिशाएँ उन्नीसवी शती के दो खण्डों में देखी जा सकती है -१) पूर्व हरिश्चंद्र काल और २) हरिश्चंद्र काल में |
पूर्व हरिश्चंद्र युग - १७९९ में फोर्ट विलियम कालेज की स्थापना कलकत्ता में हुई | इसके आचर्य जॉन गिलक्रिस्ट ने भारतीय भाषाओं का अध्ययन किया | ईस्ट इंडिया कंपनी के प्रशासकों को हिंदी सिखाने के लिए उन्होंने एक व्याकरण और एक शब्दकोश का निर्माण किया | वे इस भाषा को हिन्दुस्तानी कहना ज्यादा उचित समझते थे | उनकी हिंदी लिखी तो जाती थी देवनागरी अक्षरों में परन्तु उसमे उर्दू के प्रयोग बहुलता से किये जाते थे |
गिलक्रिस्ट की अध्यक्षता में अनेक अनुवाद और मौलिक रचनाएँ प्रकाश में आई | इस कार्य में उनके चार सहायक थे - इंशा उल्लाह खाँ, लल्लू लाल, सदल मिश्र और सदासुख लाल | इनके योगदान का मूल्यांकन अत्यंत महत्वपूर्ण है | उनका संक्षिप्त विवरण निम्न रूप में है -
इंशा उल्लाह खाँ- इनकी रचना 'रानी केतकी की कहानी' ठेठ बोलचाल की भाषा में लिखी गई | उन्होंने ध्यान रखा की हिंदी को छुट किसी बाहर की बोली का पुट न मिले | वास्तव में इंशा ने 'हिन्दुस्तानी' रूप की स्थापना करनी चाही |
लल्लू लाल - इनकी १४ रचनाएँ बताई जाती है | उनमे कुछ अनुवाद है | 'प्रेम सागर' उनकी प्रसिद्द कृति है | इनकी रचनाओ में गद्य के पदबंधों में लयात्मकता और तुकबंदी, अलंकारों, लोकोक्तियों और मुहावरों से भाषा का श्रृंगार, नाना बोलियों का सम्मिश्रण और दक्खिनी हिंदी का प्रयोग | उन्होंने प्रायः विदेशी शब्दों का वहिष्कार किया | कुल मिलकर लल्लू लाल की भाषा खड़ी बोली मिश्रित थी |


सदल मिश्र- उनकी तीन कृतियाँ मशहूर हुई -नासिकेतोपाख्यान, अध्यात्म रामायण और रामचरित | इसके आधार पर यह कहा जा सकता है की उनकी शैली अपने ढंग की थी | वे बिहार के रहने वाले थे इसलिए उनकी भाषा में पूर्वी प्रयोग ज्यादा थी | कुछ पदों में ऐसा लगता है की मानो लेखक खड़ी बोली के प्रयोगों को सिखा रहे हो |
सदासुख लाल- वे दिल्ली के रहने वाले कायस्थ परिवार से और उर्दू के एक अच्छे लेखक और कवी थे, तो भी उन्होंने खड़ी बोली के उस रूप को अपनाया जिसमे पंडिताऊपन और पूर्व पश्चिम की बोलियों का सम्मिश्रण था फिर भी अन्य लेखकों की तुलना में उनकी भाषा मानक हिंदी के अधिक निकट आने लगी थी | उनकी प्रसिद्ध रचना 'सुखसागर' थी | निष्कर्षतः कह सकते है की फोर्ट विलियम कालेज के इन चार लेखकों ने खड़ी बोली के साहित्यिक क्षेत्र का विस्तार अवश्य किया किन्तु वे भाषा का कोई व्यावहारिक स्वरुप उपस्थित नहीं कर सके |
पत्र-पत्रिकाएँ - भार्तेंदुपूर्व काल में अनेक पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन होने लगा | हिंदी का सबसे पहला पत्र 'उदन्त-मार्तंड १८२६ में कलकत्ता से प्रकाशित हुआ , लेकिन थोड़े समय बाद लुप्त हो गया | १८२६ में कलकत्ता से 'बंग-दूत' निकला जिसे सरकार ने १८२९ में बंद कर दिया | राजा शिवप्रसाद सितारे हिंद का 'बनारस अख़बार' १८४४ से छपने लगा | इसकी भाषा हिन्दुस्तानी थी | इसकी उर्दू शैली के विरोध में 'सुधार' प्रकाश में आया | १८५४ में कलकत्ता में 'समाचार सुधा वर्षण' नाम का दैनिक पत्र प्रकाशित हुआ | पंजाब से नवीनचंद्र राय ने 'ज्ञान प्रकाशिनी' पत्रिका निकाली |
इन पत्र-पत्रिकाओं ने खड़ी बोली के प्रचार-प्रसार में महत्वपूर्ण योगदान किया | इनमे भाषा का ठेठ,प्रचलित और मिश्रित रूप हीं चलता रहा |
१९ वी शताब्दी के उत्तरार्ध का आरम्भ- १९ वी शताब्दी के ५० वर्ष बीतने के बाद राजा शिवप्रसाद सितारे हिंद और राजा लक्ष्मण सिंह ने स्वतंत्र रूप से दो नै शैलियों का विकास किया | राजा शिवप्रसाद सिंह की भाषा में पहले तो हिंदीपन ही अधिक था | परन्तु जब से वे शिक्क्षा विभाग के अधिकारी हुए , चाहे जिस कारण से हो,धीरे-धीरे उनकी भाषा में ऊर्दुपन बढ़ता गया | उनके द्वारा लिखी कई पुस्तकों से खड़ी बोली का प्रवेश हुआ और बच्चों को शुद्ध भाषा सिखाने की चिंता में हिंदी का स्वरुप निखरा |
ईसाई मिशनरी अपना धर्मप्रचार जनता की भाषाओं में कर रहे थे | उन्होंने देख लिया की इसके लिए उत्तर भारत में न तो ब्रजभाषा से काम चलेगा न उर्दू से | उन्होंने सरल खड़ी बोली को अपना माध्यम बनाया | उन्होंने जनता में नयी संस्कार भरने के लिए शिक्षा और पुस्तक प्रकाशन की योजनाएँ बनाई |
पाठ्य-पुस्तकों के अलावा इन्होने धर्म सम्बन्धी तथा समाज सुधार सम्बन्धी अनेक छोटी-बड़ी पुस्तकें छपवाकर जनता में वितरित की | सन १८२६ इसवी में 'धर्म पुस्तक ' नाम से ओल्ड टेस्टामेंट का खड़ी बोली में अनुवाद प्रकाशित हुआ |
हरिश्चंद्र युग- भारतेंदु हरिश्चंद्र १८७३ में 'हरिश्चन्द्र मैगजीन' के प्रकाशन के साथ खड़ी बोली का व्यावहारिक रूप लेकर आये | उन्होंने कई नाटक, कहानियाँ, निबंध आदि रचनाएँ की | नाटकों में सत्य हरिश्चंद्र, चन्द्रावली, नीलदेवी, भारत-दुर्दशा, प्रेम-योगिनी,विषस्य विषमौषधम, वैदिकी हिंसा न हिंसा भवति आदि अनेक मौलिक और अनुदित है | इनमे पद्य की भाषा तो ब्रजभाषा है और गद्य में ब्रजभाषा मिश्रित खड़ी बोली है जो धीरे-धीरे व्यावहारिक खड़ी बोली बनती गई | खड़ी बोली के विकास में उनका वास्तविक योगदान हरिश्चंद्र मैगजीन, हरिश्चंद्र चन्द्रिका और बालबोधिनी पत्रिकाओं के निबंधों में मिलता है | इन सब में गद्य की भाषा खड़ी बोली रही है |

लैपटॉप की दुनिया


हर रोज
अपने लैपटॉप से मैं नयी दुनिया देखता हूँ |
जहाँ तमाम दुनिया, 
एक स्क्रीन पर है,
जो चाहो वो कर सकते हो,
जो चाहे वो देख सकते हो
बस माउस को दिशा देनी होती है
क्लिक करो और आपके मन की चीजें 
स्क्रीन पर |
अगर नेट और मौसम का साथ रहा तो 
फिर क्या,
चीजें पल भर में आपके पास |
आप अपनी मनपसंद चीजें 
छोटे कमरे में बैठ कर 
चाय, बिस्कुट के साथ  
देख सकते हैं |
चंद पैसों में आप पूरी कृत्रिम दुनिया 
घर बैठे देख सकते हैं|
चाहे वो आगरा का ताजमहल हो
या फिर जयपुर का हवामहल, 
हर महल आपके पहल पर है|
झरनों की सरसराहट हो या
पक्षियों की चहचहाहट,
सभी के ऊपर एक क्लिक करने की देर है|
आप की मुस्कुराहट इसके कीबोर्ड के कमांड पर है| 
इंटर देंगे तो आपकी मुस्कुराहट प्रोसेस होने लगेगी|   
हर खुशी को आप माई डोकुमेंट्स या डेस्कटॉप या फिर किसी भी 
ड्राइव में सेभ कर सकते है |
रिफ्रेश देने पर रुका काम भी होने लगेगा|     
मगर क्या इस वास्तविक जीवन में कोई
रिफ्रेश बटन नहीं,
जिससे हर दुःख, दर्द और तकलीफ मिट जातें |
हर रोज मेरा रू-ब-रू अपने लैपटॉप से होता है,
अलग अलग खोज के साथ|


(कलकत्ता नगर राजभाषा कार्यान्वयन समिति से प्रकाशित पत्रिका "स्वर्णिमा 2011" में तृतीय पुरस्कार से सम्मानित )