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सोमवार, दिसंबर 26, 2011

उसने मना नहीं किया...

उसने मना नहीं किया...
जब चाहा फूलों से खुशबू,
उसने मना नहीं किया...
कोमल पत्तियों को छूने की चाह,
उसने मना नहीं किया,
हर बार
हर बार
बिना किसी निमंत्रण के...
मुझे और मेरे आग्रह को ठोकर नहीं लगने दिया...
दिन के उजाले ने कभी अपनी रौशनी
देने से मना नहीं किया...
रात ने भी अँधेरे में परछाई बनने से मना नहीं किया...
सुबह की पहली किरण को भी फूटने से
किसी ने मना नहीं किया...
रात को सुनसान मैदान में
ओस की बूंदों को गिरने से
किसी ने मना नहीं किया...
बारिश में बड़े बड़े बूंदों ने
तन को भिगोया
उस वक़्त भी किसी ने मना नहीं किया...
जब कड़े धुप ने, इस मन को जलाया तब भी किसी ने मना नहीं किया...
सोया रहा जब अकेला कमरे में
उस अकेलेपन पर भी कोई
कुछ नहीं बोला...
बच्चे के मुस्कुराने पर
फिजाओं में फैलते हंसी पर किसी ने मना नहीं किया...
हर बार
हर बार
मैंने आजादी महसूस की
और उस आजादी पर भी किसी ने मना नहीं किया...

ख़ामोशी कैसी है ?

ख़ामोशी कैसी है ?
जैसे घने कुहासे से घिरी ट्रेन की पटरियाँ हो
और उसे देखता परेशां मुसाफिर...
यूँ कहें तो कड़ी ठंडक में कपकपाते होंटों की वो अद्भुत ध्वनि |
शांत और विरान जंगल में अदृश्य कीट-पतंगों की आवाज़...
किताबों के पन्नो की फर्रफराहट ,
कलम की नोख से स्याही की वो सुगबुगाहट...
कुछ ऐसा भी महसूस होता है |
बंद मुँह के खुलने से, होटों की बुदबुदाहट...
कुछ ऐसा भी...
पेड़ों से गिरते पत्तों की वो नि:शब्द आवाज़,
हवा के साथ बहने की सरसराहट..कुछ ऐसा हीं...

मुझे इंतजार है...

मुझे इंतजार है...उस मंजर का जहाँ हर शक्स के पास हंसने की वजह हो...
मुझे नकली हंसी वाले लोगों को नहीं देखना,
अब तो बिलकुल नहीं...क्योंकि,
समय काफी बीत गया,
मेरी मांग बहुत छोटी है,
मगर न जाने क्यों यह लोगों को बड़ी लगती है...
इससे मैं अपने इंतजार का गला नहीं घोंट सकता..
हरगिज नहीं,हर गली,
नुक्कड़ और मोहल्ले में उस शक्स को नहीं देखना,
जो नफरत को दबा कर,
हंसने का ढोंग करता हो...
सामने अपनापन और पीठ पीछे शत्रुता से दो सीढ़ी ऊपर उठकर
न दिखने का नाटक करता है,
इस मंच को अब नष्ट करना होगा,
और तभी यह इंतजार ख़त्म हो पायेगा...