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रविवार, जुलाई 10, 2011

कुछ नहीं फिलहाल

मेरे जेब में दस के नोट 
और बाजार में महँगाई की चोट,
काँप जाता हूँ कभी नींद में,
तो कभी जागते हुए |

कहीं आगे बढ़ने की भीड़ है तो कहीं 
पीछे छूटने का भय, 
हर बार मैं भीड़ और खालीपन के 
बीच का रह जाता हूँ|

मेरे सिर पर खुला आकाश पर फिर भी मैं
उसे छू नहीं सकता ,
 चाह है नदी को देखने की पर, 
उस पार जा नहीं सकता |

लोगों के भीड़ में मैं सिर्फ ,
एक सिर,दो हाँथ और दो पाँव का इंसान हूँ 
चारों ओर से  एक भीड़ का शिकार हूँ 
और कुछ नहीं |

अजनबियों और अज्ञात मानवों की मण्डली 
हर ओर है, 
मित्र लायक कौन है! 
ये कहना चावल से कंक्कड़ निकालने जैसा है|

बिजली की चमक से 
कौन खुश है और कौन उदास
इस बात का पता लगाना 
बादलों से दोस्ती करना जैसा होगा |

एक अतृप्त मानव
को ओश की बूँद चाहिए या फिर
साधारण पानी की बूँद ,
इससे बेहतर 
कश्म कश और कुछ नहीं फिलहाल | 

तुम उदार बन सकते हो

तुम उदार बन सकते हो,
बस अपने पास आए गरीब को 
दो पैसे देकर
ज़माना महँगाई का है 
इतना तो सोचना ही पड़ेगा 
मगर अपने लिए नहीं...
लोग तरह तरह के पाठ
पढ़ाएंगे
अफ़सोस, तुम्हारे पास 
अनपढ़ होने का बहाना रहेगा |
कोई दो पैसे देकर उदार है तो कोई
चार पैसे...
हर रोज तुम्हे तुम्हारा जमीर  
एक ही बात कहेगा 
कल की अपेक्षा 
आज तुमने ज्यादा उदारता दिखाई,
कुछ लोग ऐसे मिलेंगे 
जिन्हें आभास तक नहीं इसका |
मगर तुम्हे 
उदारता के झोले में कभी
दो, कभी चार और कभी उससे भी ज्यादा डालना पड़ेगा |

 ( कलकत्ता नगर राजभाषा कार्यान्वयन समिति से प्रकाशित पत्रिका "स्वर्णिमा 2011" में प्रकाशित    ) 

रेत के ढेर

सागर के किनारे रहते 
रेत के ढेर |
एक अलग ही सौन्दैर्य छिपा रहता उसमे |
कोई अपना नाम लिखता, 
तो कोई अपना और अपने साथी का एक साथ ,
कोई अपने बिछड़े साथी का,
कोई अपने बेटे का,
तो कोई ऐसा भी होता,
जो कला के अलग-अलग रंग बिखेरता
उस रेत पर,
अफ़सोस...
जी हाँ अफ़सोस,
एक लहर 
सारे सौंदर्य,रिश्ते नाते और कला 
को अपना रूप देकर चला जाता
और फिर आता 
और फिर जाता...

बारिश से डरता नहीं था मैं

बारिश से डरता नहीं था मैं
मगर इस बार 
इस बारिश ने मुझे भिगोया
कभी दाहिने कंधे को
कभी बाएं कंधे को
कभी दाहिने पैर को
तो कभी बाएं...
हर बार एक भीगा एहसास 
मुझे कुछ याद दिलाता
कि मेरे सिर पर एक छाता है 
खरीदने से पहले मैंने 
गलती की, मैं भूल गया पूछना की 
क्या ये बारिश में मुझे बचाएगा ?
और अंत में 
छाते ने अपना वादा नहीं निभाया |

घुटन

घुटन उस अन्धे कुँए, गहरी खाई,
लम्बी सुरंग और ऊँची चोटी 
जैसी है, 
जहाँ सिर्फ और सिर्फ बेचैन मानव के 
भीड़ है |
देखना चाहो तो अँधेरा है,
झाँकना चाहो तो गहरा है,
मापना चाहो तो लम्बी है ,
और चढ़ना चाहो तो ऊँची है |

उफ ये बारिश...


अब के बरस बारिश की बूंदे
बाज़ार के चावल से महंगी है |
भीगना चाहो या न चाहो, 
बीमार पड़ने पर खर्चे का डर बना ही रहेगा |
अब तो सारा शहर महंगाई में डूबेगा,
हर कोई बारिश से भीगेगा,
गरीबी या अमीरी से इसका 
कोई नाता नहीं,
हर जाति और धर्म को भिगोयेगा |
उफ ये बारिश... 






फ़साने...अफ़साने...

मैं ग़ालिब नहीं, न हूँ मीर, 
फिर भी मैं लिखूंगा 
फ़साने...अफ़साने... जो भी हो|
फूलों की खुशबू से लेकर दिए की रौशनी तक,
जिससे रोशन है घर भी और शायरी भी |
यादों की जरूरत नहीं... 
ख़्वाबों की जागीर नहीं...
न है मिलकियत खजानों की..
महरूम हूँ मै इनसे,
बस इंतज़ार है...बस इंतज़ार है...  
चिरागों से लौ चुराने की,
कि मै भी रौशन हो जाऊं और मेरी शायरी भी |

शिकायत

धूल भी है जमीं पर 
ये पाँव भी है जमीं पर 
तो फिर आसमां की क्या जरुरत !
कहते है ग़ालिब के बाद के शायर कि
आसमां में छिपे चाँद की क्या जरुरत !
जिन हवाओं ने इन सुर्ख आँखों में 
दिए धूल के बारीक कण 
उन हवाओं की क्या जरुरत !
राहों में चलने वाले मुसाफिर
भटकने के बाद कहते हैं         
इन राहों की क्या जरुरत !
कड़ी धूप में तिलमिलाते बदन  
और जुबां से एक सच कि 
इस धूप की क्या जरूरत !
वो खुसी के पल और उस पल के बाद बहते आंसू   
तो इन आंसुओं की क्या जरूरत !
हर जंग में लड़ते जवान 
हर दुश्मन से लड़ते लड़ते शहीद होते जवान 
तो उस जंग की क्या जरूरत !
उस तूफानी रात में उजड़ते लाखों झोपड़े
और बेसहारा होते लाखों गरीब लोग
तो उस तूफ़ान की क्या जरूरत !
बाढ़ से बहते कई गाँव और बर्बाद होते किसान 
बह जाते सारे छोटे-छोटे सपने
बाढ़ के साथ 
बह जाते एक समय की सुखी रोटी और प्याज 
उस बाढ़ के साथ 
फिर उस बाढ़ की क्या जरूरत !
गरीबी और गरीबों के हक़ को लेकर किये गए 
वादें जो पूरे नहीं होते 
उन वादों की क्या जरूरत !
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