मेरे जेब में दस के नोट
और बाजार में महँगाई की चोट,
काँप जाता हूँ कभी नींद में,
तो कभी जागते हुए |
कहीं आगे बढ़ने की भीड़ है तो कहीं
पीछे छूटने का भय,
हर बार मैं भीड़ और खालीपन के
बीच का रह जाता हूँ|
मेरे सिर पर खुला आकाश पर फिर भी मैं
उसे छू नहीं सकता ,
चाह है नदी को देखने की पर,
उस पार जा नहीं सकता |
लोगों के भीड़ में मैं सिर्फ ,
एक सिर,दो हाँथ और दो पाँव का इंसान हूँ
चारों ओर से एक भीड़ का शिकार हूँ
और कुछ नहीं |
अजनबियों और अज्ञात मानवों की मण्डली
हर ओर है,
मित्र लायक कौन है!
ये कहना चावल से कंक्कड़ निकालने जैसा है|
बिजली की चमक से
कौन खुश है और कौन उदास
इस बात का पता लगाना
बादलों से दोस्ती करना जैसा होगा |
एक अतृप्त मानव
को ओश की बूँद चाहिए या फिर
साधारण पानी की बूँद ,
इससे बेहतर
कश्म कश और कुछ नहीं फिलहाल |