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बुधवार, फ़रवरी 20, 2013

ये क्या हो गया !

ये क्या हो गया !
तन पर कपडे होने के बावजूद भी
एक तरह का नंगापन है,
मुँह में जबड़े हैं ,
पर कोंई ऊँचा बोलता नहीं ,
इस स्वाधीन देश में सभी जबड़ों के गूँगे हो गए हैं ।

ये क्या हो गया !

घूरते हैं एक दूसरे को,
पर मारता कोई नहीं है,
जोर से कहता है मगर डाँटता नहीं है,
आँखों में आँसू है पर रोता नहीं है ।

ये क्या हो गया !

बर्बाद करने की धमकी है सिर्फ,
पर करता नहीं है ,
नीचा दिखाने को कहता ,है
मगर दिखाता नहीं ,
सभी स्तब्ध है मगर ,
फिर भी कोइ कहता नहीं ।

ये क्या हो गया !

एक कमरे से दूसरे कमरे में फासले में है ,
मगर सूझता नहीं,
बात बदले की हो रही है किसी एक में,
पर कोइ बताता नहीं,
दीवार कह नहीं सकता
कमरे की चीजें बेजुबान ,है
केवल आप और मैं
जुबानधारी है
मगर उसका भी क्या फायदा ।

ये क्या हो गया !

कंठ को पानी की बूँद चाहिए
अगर कोई सोचता नहीं ।
चारो तरफ भीड़ है
खचाखच भीड़
जो किसी काम की नहीं। 
देह का छिलना बाकी है
इस भीड़ में
और शायद कुछ नहीं ।

ये क्या हो गया !

इस सभ्य नगर में
कोई बचा नहीं ।
ज्ञानेंद्रियाँ सक्रिय है
मगर उसमे एक चुप्पी है
एक ऐसी चुप्पी
जिसका टूटना बाकी है ।