मै ...
कविता की एक कड़ी हूँ
जो समय के साथ
और मजबूत होता जा रहा है |
समाज का हर एक तबका
मुझे घूर रहा है |
कुछ लिखने क लिए ,
मै विवश हूँ |
न जाने क्यों मेरे हाथ कॉपते है ,
उस सच्चाई पर
जो मेरा पीछा कर रही है
शब्द चुनता हूँ ,
शब्द फैंकता हूँ,
अब मेरे चारो और शब्दों का एक जाल है |
इन शब्दों में समाज की एक त्रासदी है |
और शायद मेरे लिखने की भी,
सभी सच कहते है
शब्द बोलते है
जो आज गूंगा है |
वे आज शब्दों के शक्ल
में जिन्दा है |
शब्द उन्हें नचा रहा है
और वे नाच रहें है |