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सोमवार, मार्च 18, 2019

लाइक, कमेंट्स और शेयर...

अरे यार रजिस्ट्रेशन किए की नहीं?
एक दोस्त का सवाल
दूसरे को खड़ा कर देता है
वाट्सएप, फेसबुक, ट्वीटर, इंस्टाग्राम के इर्द गिर्द।
फिर शुरू होता है
लाइक, कमेंट्स और शेयर का सिलसिला।
यार, मैंने फ्रेंड रिक्वेस्ट भेजा
पर अगले ने अभी तक
अकसेप्ट नहीं किया ।
कोई बात नहीं,
किसी और को भेज!
पाँच सौ से ज्यादा फ्रेंड्स है मेरे लिस्ट में।
और तुम्हारे....?
नहीं मालूम।
ये सब भी है!
जन्मदिन मुबारक हो।
सालगिरह मुबारक हो।
रिप।
बधाई।
नाइस।
....शेयर्ड हिज/हर लोकेसन।
....ट्रावेलिंग टू...
फीलिंग सैड/हैप्पी..इत्यादि।
क्या बकवास है,
अब तक सिर्फ दो ही लाइक मिले?
देखो इधर।
ये क्या पोस्ट लिखा है!
छोड़ो यार,
कुछ खास नहीं।
कचरा है सब।
क्या बोल रहे हो!
सच बोल रहा हूँ।
इसने सब छीन लिया!
सच्ची अभिव्यक्ति, अपनत्व, सादगी इत्यादि।
सच कह रहे हो मित्र !
कल मैंने कुछ टिप्पणी की अपने वाल पर
और आज मैं देशद्रोही हो गया ।
समझ नहीं पा रहा
ये कैसे हुआ ।
यहाँ यही सब होता रहता है ।
फिक्र मत करो ।
साइन आऊट करो इन सबसे से
और भूलकर भी साइन इन मत करना ।
वरना अंजाम बहुत बुरा होगा ।

तुम्हारे साथ

तुम्हारे साथ
शहर को शहर पाता हूँ
जो ख़्वाब अधूरे थे उसे पूरा पाता हूँ।
समुद्र में उठती लहरें,
एक अलग वेग में पाता हूँ।
रेत पर बिखरे सपनों को
शहर के रंग बिरंगे लोगों से
भरा पाता हूँ।
हवा में रस्सी पर खड़ी
वह लड़की शहर को अपना रोमांचक खेल दिखा रही है।
बिक रहे खिलौने से शहर को
सुन पाता हूँ।
तुम्हारा हाथ पकड़कर
रेत में भी खुद को तेज पाता हूँ।
शहर की सड़कों पर तुम्हारे साथ,
मानो वर्षों से इसे जानता हूँ।
तुम्हारे साथ..
शहर एक उत्सव से कम नहीं।
लोग कितने परिचित से जान पड़ते हैं।
बटरफ्लाई ब्रिज से गुजरना ऐसा एहसास दिलाता है,जैसे
हम तितली हैं शहर के।
तुम्हारे साथ ..
यह शहर उतना ही मधुर है
जितना
ये शब्द 'तमिल'...
तुम्हारे साथ...
शहर को एक किताब सा पाता हूँ।
जिसे हर रोज पढ़ता हूँ
और हर बार एक नया पन्ना जुड़ जाता है।
तुम्हारे साथ ...
शहर को नक्शे पर नहीं,
तुम्हारी आँखों में पाता हूँ।
तुम्हारे साथ..

समय बदल रहा है।

समय बदल रहा है।
आकाश का रंग बदल रहा है।
धरती का आकार बदल रहा है।
मानवता का रंग बदल रहा है,
बस नहीं बदल रहा तो
मैं और तुम।
चिड़ियाँ जिस डाल पर बैठा करती थी,
वह डाल बदल रहा है
फूलों का रंग बदल रहा है।
हरियाली बदल रही है।
बहती नदी बदल रही है,
तालाब और झीलें बदल रही है।
बस नहीं बदल रहा तो मिट्टी का रंग।
समाज बदल रहा है,
रिश्ते बदल रहे हैं,
अपनो से अपनों की उम्मीदें बदल रही है,
बस नहीं बदल रहा तो सोचने का ढंग।
पर्वतों का आकार बदल रहा है।
वर्षा की गति बदल रही है,
दिन का ताप बदल रहा है।
पेड़ों की छाँव बदल रही है।
नहीं बदल रहा तो उसमें भीगने की चाह,
उस ताप से जलने का भय।
अंधा-धुंध सभी भाग रहे है,
अदृश्य अंधेरे की ओर,
जहाँ मिलने वाला कुछ नहीं,
खोने के सिवाय।
पर नहीं बदलेंगे लोग।
वजह है बस यही-
बस स्वार्थ नहीं बदल रहा,
बदल रहे हैं स्वार्थी !
इसी का डर था ।

हर रोज

हर रोज
मैं मिलता हूँ एक अजनबी से
जो मेरे अंदर है
जो मुझे सावधान करता है
किसी अजनबी से मिलने के लिए,
जो मुझे बदल सकता है !
मेरे शरीर पर जो कपड़े हैं उसे
जो घड़ी है
जो चप्पल/जूते हैं
जो कड़ा है
आंखों पर जो चश्में है
गले में जो आस्था की हार है
हर एक चीज को..
लेकिन!
फिर मैं सोचता हूँ
इस अजनबी से मैं निपट लूँगा,
लेकिन उस अजनबी का
क्या जो बाहर घूम रहा है।
जिसकी नज़र हर वक़्त मुझपर टिकी रहती है।

मंच से

काश !
मैं विवेकानंद को पढ़ता तो मानवीय संवेदनाओं को समझ पाता।
समाज में व्याप्त कुरीतियों को देख पाता।
पर ऐसा हो न सका।
बेलूर मठ भी जाना नहीं हुआ।
न ही चेन्नई का विवेकानंद हाऊस देखना हुआ।
काश!
मैं टैगोर को पढ़ता
तो जीवन से रु-ब-रु हो पाता।
जोड़ासांकू ठाकुर बाड़ी नहीं देखा मैंने।
प्रकृति का सान्निध्य मिल पाता।
मंच से
प्रवाहित ध्वनि ने मुझे खूब झकझोरा।
कुर्सी पर बैठे बैठे मैं
इतना भीतर धँस गया कि
क्या कहूँ!
फिर धीरे से उठा और
हल्के से बुदबुदाया।
अच्छा भाषण था।

मैं उस जगह खड़ा हूँ

मैं उस जगह खड़ा हूँ
जहाँ से मैं देख पा रहा हूँ
एक मिडिल क्लास का संघर्ष
अपने ख्वाहिशों के लिए
बिलखता हुआ जी रहा।
कभी अपने बच्चों के बहाने,
तो कभी अपने अर्धांगिनी के वास्ते।
कभी उस बूढ़े माता-पिता के लिए
जो कभी हवाई यात्रा का सुख नहीं भोग सके।
कभी किसी अच्छे रेस्तरां में बैठकर व्यंजनों का लुत्फ नहीं उठाए।
जिसने कभी महंगे कोर्ट पैंट में सेल्फी न लिया अपनो के साथ।
जिसने कभी 2बी एच के फ्लैट का सुख ना भोगा।
हर रोज अखबार का विज्ञापन देख,जो संतोष कर लेता है।
पर फिर भी हार नहीं मानता।
लेकिन वे अपने ख्वाहिशों से हर रोज हारते हैं।