फ़ॉलोअर

रविवार, जुलाई 10, 2011

कुछ नहीं फिलहाल

मेरे जेब में दस के नोट 
और बाजार में महँगाई की चोट,
काँप जाता हूँ कभी नींद में,
तो कभी जागते हुए |

कहीं आगे बढ़ने की भीड़ है तो कहीं 
पीछे छूटने का भय, 
हर बार मैं भीड़ और खालीपन के 
बीच का रह जाता हूँ|

मेरे सिर पर खुला आकाश पर फिर भी मैं
उसे छू नहीं सकता ,
 चाह है नदी को देखने की पर, 
उस पार जा नहीं सकता |

लोगों के भीड़ में मैं सिर्फ ,
एक सिर,दो हाँथ और दो पाँव का इंसान हूँ 
चारों ओर से  एक भीड़ का शिकार हूँ 
और कुछ नहीं |

अजनबियों और अज्ञात मानवों की मण्डली 
हर ओर है, 
मित्र लायक कौन है! 
ये कहना चावल से कंक्कड़ निकालने जैसा है|

बिजली की चमक से 
कौन खुश है और कौन उदास
इस बात का पता लगाना 
बादलों से दोस्ती करना जैसा होगा |

एक अतृप्त मानव
को ओश की बूँद चाहिए या फिर
साधारण पानी की बूँद ,
इससे बेहतर 
कश्म कश और कुछ नहीं फिलहाल | 

1 टिप्पणी:

प्रेम सरोवर ने कहा…

बसंत जी आपके पोस्ट पर पहली बार आया हूँ। आज आप हमारे कार्यालय में आए थे। यह मेरे लिए खुशी की बात है कि आप भी मेरे ब्लॉग-बंधु बन गए। कविता अच्छी लगी। धन्यवाद। मेरे ब्लॉग www.premsarowar.blogspot.com पर भी आते रहने की कोशिश करते रहिएगा।