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सोमवार, मार्च 18, 2019

मंच से

काश !
मैं विवेकानंद को पढ़ता तो मानवीय संवेदनाओं को समझ पाता।
समाज में व्याप्त कुरीतियों को देख पाता।
पर ऐसा हो न सका।
बेलूर मठ भी जाना नहीं हुआ।
न ही चेन्नई का विवेकानंद हाऊस देखना हुआ।
काश!
मैं टैगोर को पढ़ता
तो जीवन से रु-ब-रु हो पाता।
जोड़ासांकू ठाकुर बाड़ी नहीं देखा मैंने।
प्रकृति का सान्निध्य मिल पाता।
मंच से
प्रवाहित ध्वनि ने मुझे खूब झकझोरा।
कुर्सी पर बैठे बैठे मैं
इतना भीतर धँस गया कि
क्या कहूँ!
फिर धीरे से उठा और
हल्के से बुदबुदाया।
अच्छा भाषण था।

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