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रविवार, जुलाई 10, 2011

फ़साने...अफ़साने...

मैं ग़ालिब नहीं, न हूँ मीर, 
फिर भी मैं लिखूंगा 
फ़साने...अफ़साने... जो भी हो|
फूलों की खुशबू से लेकर दिए की रौशनी तक,
जिससे रोशन है घर भी और शायरी भी |
यादों की जरूरत नहीं... 
ख़्वाबों की जागीर नहीं...
न है मिलकियत खजानों की..
महरूम हूँ मै इनसे,
बस इंतज़ार है...बस इंतज़ार है...  
चिरागों से लौ चुराने की,
कि मै भी रौशन हो जाऊं और मेरी शायरी भी |

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