‘अहिंसा’ की तस्वीर
वक़्त है कुछ करने की
कहते तो सभी हैं,
अफसोस ! ज़िम्मेदारी आज
किसी ‘कुर्सी’ के चार पायदानों की तरह मरी पड़ी है,
मगर खड़ी है चंद विश्वसनीय कंधों पर ।
एक कमरे की ये दास्तान
किसी असहाय ‘व्यक्ति’
से जुड़ी है ।
शासन और शासक के चंद चापलूस
किया करते हैं
दिन प्रतिदिन रोजगार का बंदोबस्त ।
‘म-हा-त्मा’ तस्वीर से देखते है सारा तमाशा
!
‘अहिंसा’ को जहाँ उसने कभी
पीठ पीछे देखा था,
मगर आज ‘इसे’ वो नाक पर देखते हैं ।
उनकी आत्मा ‘जीवित’ होती
बशर्ते......... ।
हिंस..... हिंसा...... हिंस-आ.... हिं.....
से गूँज उठता है सारा
‘अतीत’-
‘अहिंसा’ की तस्वीर
अब, वीरता की ‘तकदीर’
बनकर रह जाती है
और ‘अहिंसा’ की पराजय
‘हिंसा’ का तमाचा
खाकर
टंगी की टंगी रह जाती है ।
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