कविता नहीं रह जाती है,
उसके शब्द बोल उठते हैं |
प्रत्येक मात्रा अपने स्थान से उठकर
कविता का बनकर रह जाता है |
ये तो छपने छपने की बातें है |
तब यही कविता अनेक गुल खिलाती है |
किसी को हरा, पीला, लाल कर देती है,
रोते हुए को हंसा भी देती है
हँसते हुए को ...
हर चौराहे से झांक उठती है ये कविता,
किसी भी सम्मलेन या संगोष्ठी में
हाथों कि शोभा बन जाती है |
नवयुवकों के डायरी और प्रेमिकाओं के
हाथों में दिखती है. यही कविता |
हर शमा को बांधती है ये कविता,
तो कभी मंच कि शोभा बढाती है ये कविता |
फूटपाथ पर रहने वाले गरीब, महानगर में बसे हर लोगों
के हर रूप को बयां करती है ये कविता |
आखिर हर, कवि के बीच
आलोचना का विषय है ये कविता |
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